Monday, July 11, 2011

जयशंकर प्रसाद जी के कलम से

"तुमुल कोलाहल कलह में

मैं ह्रदय की बात रे मन


विकल होकर नित्य चचंल,

खोजती जब नींद के पल,

चेतना थक-सी रही तब,

मैं मलय की बात रे मन


चिर-विषाद-विलीन मन की,

इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ

मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,

कुसुम-विकसित प्रात रे मन


जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,

चातकी कन को तरसती,

उन्हीं जीवन-घाटियों की,

मैं सरस बरसात रे मन


पवन की प्राचीर में रुक

जला जीवन जी रहा झुक,

इस झुलसते विश्व-दिन की

मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन


चिर निराशा नीरधार से,

प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,

मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,

मैं सजल जलजात रे मन"

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